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मेहमान की बहु और 95,800 रुपये

  • Writer: Shweta Sarkar
    Shweta Sarkar
  • Oct 12, 2020
  • 6 min read


मेहमान (Name of a man) की बहु (daughter-in-law), एक औरत जिसने की अपने आपको सक्षम कर लिया और उसने इस बात को माना भी की वो सक्षम है।

मैं एक ब्राह्मण हूँ , जो लोग नार्थ-इंडिया से बिलोंग करते हैं या उसके caste सिस्टम को जानते हैं वो समझते होंगे की यहाँ ब्राह्मण होना एक प्राइड की बात माना जाता रहा है और शायद अभी भी माना जाता है। सबसे ऊंची caste को बिलोंग करने की वजह से हमें बहोत सारे सोशल प्रिविलेज मिलते रहते हैं- हर कोई बच्चे-बच्चे के पैर छूता हुआ दिख जायेगा और ये कोई बड़ी बात नहीं है, मैंने भी अपने बचपन में इस बात को एन्जॉय किया है की मैं सबसे ऊपर हूँ और मेरा सम्मान किया जाना बहोत ही आम बात है। लेकिन मैंने टाइम और सोसाइटी दोनों को बदलते भी देखा है, शायद 90's के दशक में पैदा होने का ये एक फायदा है की मैं पुरानी से पुरानी और नयी से नयी चीज़ों की साक्षी बन पायी हूँ। और इसी तरह से मैंने देखा की लोग बदलते गए,( अच्छे के लिए/ for good )। इस तरह के किसी भी सिस्टम के बदलने को मैं बेहतर होते हुए कानून, technology , एजुकेशन और अवेयरनेस के परिणाम मानती हूँ जोकी बहोत ख़ुशी देता है लेकिन इस बदले हुए तौर-तरीके में अगर मुझे कुछ सबसे अच्छा याद है तो वो है - "मेहमान की बहु का बदलना"।

वो एक सामाजिक रूप से पीड़ित औरत थी, उसका पति जब तक ज़िंदा था उसको मारता था, उसके ससुराल वाले परेशान करते थे और आखिरकार एक दिन उसका पति "स्वर्ग सिधार गया"। उसके ससुर- "मेहमान" हमारे खेतों में काम करते थे, और इस वजह से मेरे दादा जी जोकि एक अच्छे मन के आदमी हैं उनको उसके ऊपर दया आयी और उन्होंने बोला की "अब से तुम हमारे खेतों में काम करो और उसके पैसे और राशन हम तुम्हे देंगे"। वो खुश थी, क्यूंकि उसके शरीर में काम करने की ताकत थी और उसको ज़रुरत थी एक सोर्स ऑफ़ इनकम की, जिससे वो अपने बेटे को पाल सके। मेरे घर में हर किसी ने मेहमान की बहु का ध्यान रखा। लेकिन हम ये नहीं भूल सकते थे न की हम सबसे ऊंचे हैं, और इस बात को ध्यान रखते हुए हमने जब जब ज़रुरत हुई मेहमान की बहु से अच्छी तरह काम लिया। मैंने ये बात इसलिए बोली की हम नहीं भूल सकते थे की हम ऊंचे हैं, क्यूंकि हमने मेहमान की बहु से सिर्फ इसलिए काम नहीं करवाया की वो ज़रूरतमंद थी और हम उसको पैसे देते थे लेकिन हमने उससे पैसों की तुलना में कहीं ज़्यादा काम करवाया। ये बहोत स्वाभाविक था की वो हमारे सारे काम करे क्यूंकि वो एक नीचे तबके से थी (सो कॉल्ड)। उसने काम किया भी लेकिन धीरे धीरे उसके चेहरे पर शिकन आने लगी, और वो शिकन बढ़ती गयी फिर भी उसने कभी पलटकर ये भी नहीं कहा की वो थक गयी है और काम नहीं करना चाहती या वो सोना चाहती है या उसको थोड़े और पैसों की ज़रुरत है। और हम इस बात पर ध्यान नहीं दे सकते थे क्यूंकि हम अच्छे तो थे मगर हम सबसे ऊंचे थे और "मेहमान की बहु " जैसे लोगों का हमारे लिए काम करना उनकी ज़िम्मेदारी था।


मैं अपने दादा-दादी के साथ नहीं रहती थी लेकिन हम वहां जाया करते थे, हर छुट्टी में, त्यौहार में या कभी भी। कई सालों बाद एक बार जब मैं अपने दादा जी घर पर थी, मैंने मेहमान की बहु को अंदर आते देखा, उसकी चाल बदल चुकी थी। नहीं, वो कमज़ोर नहीं हुई थी, न ही उसकी चाल खराब हुई थी लेकिन इस बार वो एक आत्मविश्वास के साथ चल रही थी। वो मेरे सामने आयी और उसने मुझे अपनी बैंक पासबुक दी, और बोली- "इसमें कितने पैसे हैं देखकर बताइये"। पहले तो मैं इस बात पर हैरान थी की ये वही बेचारी औरत है! फिर मैं इस बात पर हैरान हुई की इसका बैंक अकाउंट है! फिर इस बात पर की उसको पासबुक का पर्पस पता है! और फिर इस बात पर की उसकी पासबुक में इतने सरे पैसों का डिटेल है! लेकिन मैंने अपनी सारी हैरानियाँ अपने तक ही रखीं और पासबुक का आखरी पेज खोलकर देखा और उसको बताया की "95,800 रुपये हैं"। उसने मुझे अविश्वास के साथ देखा। अब मैं और हैरान हुई और मेरे अंदर का ब्राह्मण जग गया की कोई मुझे अविश्वास से कैसे देख सकता है, वो भी जिसको समाज में ये दर्जा ही न मिला हो। मैं तब एक छोटी बच्ची थी, शायद 10th बोर्ड्स देकर ही मैं अपने दादा जी के यहाँ गयी हुई थी। लेकिन फिर भी मेरे अंदर का ब्राह्मण बहोत मज़बूत था और अपनी क़द्र जनता था। मैंने थोड़े से गुस्से में उससे कहा- "तुम खुद देख लो-95,800 लिखा है न?"

तब तक मेरी माँ जोकि सामाजिक ऊंच नीच से हटकर सोचने वाली औरत हैं, वो वहां आयीं और उन्होंने बोला- "पासबुक मुझे दिखाओ, और उन्होंने इस बात को सही बताया। मेहमान की बहु ने अपने शिकन वाले चेहरे से ही लेकिन बहोत ही धीमी आवाज़ में बोला- "लेकिन भाभी अभी तो हम 10,000 रुपये जमा करके आये हैं". मेरी मां ने उसको बताया की "आज जमा किया है तो अगले महीने की एंट्री में दिखेगा, तुरंत कंप्यूटर में नहीं चढ़ता (Today's deposits will be shown in next months entry as computer does not show the current deposits immediately)"। वो मेरी मां की बात से शांत हो गयी, और उसने कहा- "अच्छा" . मुझे ये बात नहीं अच्छी लगी क्यूंकि ब्राह्मण तो वो भी थीं और मैं भी थी फिर उसने मुझ पर अविश्वास क्यों किया? मैं इस बात को किसी से कह नहीं सकती थी क्यूंकि मेरी माँ ने कभी परमिशन नहीं दी थी उंच-नींच को मानने की।मैंने ये माना की शायद मैं छोटी हूँ इसलिए इसने मुझ से ऐसे कहा लेकिन तब भी मैंने अपने ब्राह्मण होने को बिलकुल कम नहीं समझा और न ही मैंने इस बात पर ग़ौर किया की मेरी माँ का कंडक्ट कितना अच्छा है की लोग उनपर विश्वास करते हैं। ..... आज भी मैं उस बात पर हैरान होती हूँ की इतनी कम उम्र में भी मैं जातिवाद समझती थी, और ये साफ़ करता है की "कास्ट सिस्टम" कितनी बुरी तरह से हमारे समाज में मौजूद था। और आज मैं ये बात भी जान चुकी हूँ की "गुड कंडक्ट" का कोई जवाब नहीं।


उस दिन, शाम को मैंने अपनी दादी से पूछा की उसके पास इतने पैसे कहाँ से आये, उन्होंने बताया की उसका बेटा किसी फैक्ट्री में काम करता है, चंडीगढ़ में, और वहां से पैसे भेजता है। मेरी दादी ने एक लम्बी सांस ली और आगे बोलीं- "मेहमान की बहु अब कोई काम नहीं सुनती, और सुने भी कहे, अब तो बेटा कमा रहा है, परदेसी हो गया है "(Mehmaan's daughter-in-law does not do any work for us, because her son is working in some factory and sending money, her son has been a foreigner now) .

आज वो एक मज़बूत औरत थी और सिर्फ पासबुक में 95,800 रूपयों की वजह से नहीं लेकिन इसलिए की उसने मेहनत की थी, अपने बेटे को काम करने लायक बनाया था। न सिर्फ ताकत बल्कि उसके बेटे की सोच भी अच्छी थी क्यूंकि उसको अपनी माँ का ख्याल था। मेहमान की बहु ने मुझे जैसे एक्सप्रेशंस दिए थे वो ये बताते हैं की उसने हर किसी को सम्मान देना बंद कर दिया है चाहे वो किसी भी caste का हो। अब वो उनका सम्मान करती थी जिनका की वो करना चाहती थी। तब से लेकर आज तक कई बातें बदल गयी हैं, जिनमे सबसे पहले ये है की आज 95,800 हैरानी का कारण नहीं बनेगा और साथ ही साथ "मेहमान की बहु" जैसे और भी लोग हैं जिन्होंने ये माना है की वो किसी से कम नहीं है। शहरों में तो ऐसी बातें देखने को नहीं मिलती हैं लेकिन गाँव या अविकसित जगहों पर ये बातें अभी भी सामान्य हैं। आरक्षण, कानून, राजनीतिक कारण या पैसों का कमाया जाना- किसी भी तरह के अत्याचार के खिलाफ सज़ा दे सकता है या लोगों में डर पैदा कर सकता हैं लेकिन मेरा ये मानना है की सामाजिक अन्तरो को ख़तम करने का सबसे अच्छा तरीका यही है की लोग ऐसे अंतरों को मानना ही बंद कर दे और हर कोई आत्मविश्वास के साथ अपनी ज़िन्दगी जिये।

मेहमान की बहु की बात उस दिन ख़तम हो गयी। लेकिन मेरे दिमाग में हमेशा रही, और अब जब मैं उस बात को याद करती हूँ तो मुझे बहोत ख़ुशी होती है, कई बातों के लिए- सबसे पहले तो इस बात के लिए की मेरी परवरिश एक अच्छी सोच के साथ की गयी, मेरे दादा जी ने एक ज़रूरतमंद की मदद की थी, और सबसे ज़ादा ख़ुशी इस बात की है की "मेहमान की बहु बदल गयी थी।"

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